श्री विष्णु पुराण के नौवें अध्याय की एक कथा के अनुसार एक बार शिव भगवान के अंशावतार दुर्वासा ऋषि पृथ्वी पर एक सुगन्धित फूलों की माला लिए विचरण कर रहे थे कि तभी वहाँ अपने ऐरावत हाथी पर इंद्रदेव भी प्रस्तुत हुए। दुर्वासा ऋषि ने वह सुगन्धित फूलों की माला ऐरावत के मस्तक पर डाल दी, परन्तु मदोन्मत उस हाथी ने उसे अपनी सूँड से धरा पर फेंक दिया। ऐसा देखकर दुर्वासा ऋषि बहुत क्रोधित और इन्द्र को दंडित करते हुए श्रीहीन होने का श्राप दे दिया। इस श्राप के कारण देव श्रीहीन व सत्वहीनहो गऐ। धीरे धीरे उनके बल व बुद्धि का भी नाश होने लगा, जिसका लाभ उठाने के लिए दैत्यों ने इंद्रलोक पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया। तब तो सभी देव ब्रह्माजी को अग्रणी बनाकर भगवान श्री विष्णु की शरण में पहुँचकर उन्हें प्रसन्न करने के उपाय करने लगें। तब देवों के वन्दनीय भाव से स्तुति करने पर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए और सारी बातें सुनकर कहने लगे, हे देवगणों इस समय मैं जो कहता हूँ आप सब वैसा ही करो। आप सभी देवगण सामनीति के अनुसार दैत्यों के पास जाकर उनसे इस प्रकार का आग्रह करो कि देव व दैत्य यदि सन्धि कर क्षीर सागर में मन्दराचल को आधार बना कर व भगवान शिव के वासुकि नाग को नेति बनाकर यदि मंथन करते हैं तो उस मंथन से जो अमृत प्राप्त होगा आप सभी भी उस अमृतपान के समानरूप से भागीदार होंगें। उस अमृत पान से आप सभी बली व अमर हो जाएँगें। देवगणों के इस प्रस्ताव को दैत्यराज बली ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार नाना प्रकार की औषधियां क्षीर सागर में अमृतप्राप्ति की अभिलाषा से डाली गई व समुंद्र मंथन सम्भव हुआ।
क्यों और कैसे सम्भव हुआ समुंद्र मंथन
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